क्या 'श्रीलंका और बांग्लादेश' वाली गलती नेपाल ने भी दोहराई? अब कैसे रुकेंगे ये 'Gen-Z'

नेपाल में सोशल मीडिया बैन के खिलाफ भड़के हिंसक प्रदर्शनों ने अब तक 19 लोगों की जान ले ली है। काठमांडू की सड़कों पर Gen-Z का गुस्सा श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे बड़े आंदोलनों की याद दिला रहा है।

Harsh Srivastava
Published on: 9 Sept 2025 4:27 PM IST
क्या श्रीलंका और बांग्लादेश वाली गलती नेपाल ने भी दोहराई? अब कैसे रुकेंगे ये Gen-Z
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Nepal Gen-Z protest: नेपाल की राजधानी काठमांडू इस समय आक्रोश और हिंसा की चपेट में है। सरकार द्वारा प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लगाए गए प्रतिबंध ने युवाओं के गुस्से को इस कदर भड़का दिया कि अब तक हुए हिंसक प्रदर्शनों में 19 लोगों की मौत हो चुकी है। यह घटनाक्रम पिछले साल बांग्लादेश और 2022 में श्रीलंका में हुए बड़े आंदोलनों की याद दिलाता है। दक्षिण एशिया के इन पड़ोसी देशों में युवाओं ने अपनी आवाज बुलंद कर सरकारों को हिला दिया था। अब सवाल यह है कि क्या नेपाल में भी इतिहास दोहराया जाएगा?

युवाओं का गुस्सा, एक जैसी कहानी

नेपाल में बीते हफ्ते 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स, जिनमें फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप जैसे चर्चित ऐप्स शामिल हैं, पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। सरकार ने इसके पीछे कंपनियों के रजिस्ट्रेशन न होने का हवाला दिया। लेकिन युवाओं ने इसे अपनी अभिव्यक्ति की आजादी पर सीधा हमला माना। दिल्ली स्थित ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के प्रोफ़ेसर हर्ष पंत का मानना है कि इन तीनों देशों (नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका) के आंदोलनों की वजहें भले ही अलग-अलग रही हों, लेकिन इनमें एक समानता है: सरकारी मानदंड लोगों की अपेक्षाओं से मेल नहीं खा रहे हैं।

साउथ एशियन यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफ़ेसर धनंजय त्रिपाठी कहते हैं, "दक्षिण एशिया का यह इलाका युवाओं से भरा हुआ है और सरकारें इन युवाओं की उम्मीदों को पूरा नहीं कर पा रही हैं।" वे बताते हैं कि नेपाल में 15 से 24 साल के युवाओं की संख्या काफी ज्यादा है, लेकिन उनके पास रोजगार के अवसर बहुत कम हैं। ऐसे में, सोशल मीडिया पर लगा प्रतिबंध उनके लिए एक चिंगारी का काम कर गया, जो वर्षों से जमा हो रहे आक्रोश को भड़का गया।

नेपाल की त्रासदी, 19 लोगों की मौत और सियासी अस्थिरता

सोमवार को काठमांडू में हुए हिंसक प्रदर्शनों में कम से कम 17 लोगों की मौत हुई, जबकि पूरे देश में यह आंकड़ा 19 तक पहुंच गया। प्रदर्शनकारी संसद भवन में घुसने की कोशिश कर रहे थे, जिसके बाद पुलिस ने उन पर सख्ती से कार्रवाई की। नेपाल में दशकों से चली आ रही राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार के मामलों ने भी इस आंदोलन में आग में घी डालने का काम किया है। राजशाही खत्म होने के बाद कोई भी सरकार अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई है। इस अस्थिरता ने युवाओं में सरकार के प्रति अविश्वास को बढ़ाया है, और सोशल मीडिया बैन ने इस अविश्वास को विस्फोट में बदल दिया है।

बांग्लादेश का सबक, जब सरकार 'हिंसा' से नहीं रुकी

नेपाल की स्थिति काफी हद तक पिछले साल बांग्लादेश में हुए छात्र आंदोलन जैसी दिखती है। अगस्त 2024 में, सरकारी नौकरियों में आरक्षण के खिलाफ शुरू हुआ यह आंदोलन जल्द ही देशव्यापी विरोध में बदल गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार ने प्रदर्शनकारियों से सख्ती से निपटने की कोशिश की, लेकिन इससे युवाओं का गुस्सा और भड़क गया। हिंसा में सैकड़ों लोगों की मौत हुई। आखिरकार, जनता के दबाव में आकर शेख हसीना को अपना पद और देश दोनों छोड़ना पड़ा, जिससे उनका 15 साल का लंबा शासनकाल समाप्त हो गया।

श्रीलंका का 'अरागलाया', जब जनता ने राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया

इससे पहले, 2022 में श्रीलंका में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। देश की बदहाल अर्थव्यवस्था और महंगाई से त्रस्त जनता ने राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन छेड़ दिया था, जिसे 'अरागलाया' या जन संघर्ष कहा गया। यह आंदोलन तब अपने चरम पर पहुंचा, जब प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया। इस घटना के बाद, गोटबाया राजपक्षे को देश छोड़कर भागना पड़ा और उन्होंने सिंगापुर से अपना इस्तीफा भेजा।

हर्ष पंत का मानना है कि नेपाल में फिलहाल कोई बड़ा नेता या संगठन इस आंदोलन का नेतृत्व नहीं कर रहा है। लेकिन अगर सरकार ने युवाओं के आक्रोश को शांत करने की कोशिश नहीं की और संवेदनशीलता नहीं दिखाई, तो यह आंदोलन और भी बड़ा हो सकता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि नेपाल की सरकार इन दो पड़ोसी देशों से क्या सबक लेती है और क्या वह युवाओं की आवाज को अनसुना कर सकती है।

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Harsh Srivastava

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Harsh Shrivastava is an enthusiastic journalist who has been actively writing content for the past one year. He has a special interest in crime, politics and entertainment news. With his deep understanding and research approach, he strives to uncover ground realities and deliver accurate information to readers. His articles reflect objectivity and factual analysis, which make him a credible journalist.

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