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सियासत का नामांकन नाटक: जब उपराष्ट्रपति की कुर्सी पर 'फर्जी दस्तखतों' ने दावेदारी ठोकी!
Vice President Nomination: सांसदों के फर्जी साइन वो भी ऐसे नहीं कि बस दिखावे के लिए। किसी ने तो हद ही कर दी जेल में बंद सांसद का भी दस्तखत करवा लिया।
Vice President of India election 2025: दिल्ली के लोकतंत्र के गलियारों में इन दिनों कुछ गजब ही चल रहा है। उपराष्ट्रपति पद खाली हुआ नहीं कि मानो देश भर से 'उम्मीदवार उग आए' जैसे बरसात में मेंढक। एक ओर एनडीए और इंडिया गठबंधन अपने-अपने दुलारे और अनुभवी उम्मीदवारों को लेकर सधे अंदाज में मैदान में उतरे तो दूसरी ओर लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव या कहें, मज़ाक के नाम पर कुल 68 नामांकन ठोक दिए गए। वही उपराष्ट्रपति पद के लिए जो देश का दूसरा सबसे बड़ा संवैधानिक पद है, ना कि कॉलोनी की वेलफेयर सोसाइटी का सचिव।
नामांकन पत्रों की छानबीन शुरू हुई तो चुनाव आयोग के अफसर भी चश्मा उतारकर माथा खुजाने लगे। 68 नामांकन में से 66 तो ऐसे निकले, जैसे क्लास में वो बच्चे जो बिना पढ़े परीक्षा देने चले जाते हैं आत्मविश्वास ज़्यादा, तैयारी शून्य। लेकिन असली चमत्कार हुआ Joemon जोसेफ नाम के एक सज्जन के मामले में, जिनका नामांकन एकदम क्राइम-थ्रिलर निकला। जाहिर है नामांकन में 22 प्रस्तावक और 22 समर्थक जरूरी होते हैं यानी कुल 44 सांसदों की सहमति। पर यहां तो सहमति की नहीं सीधे कलात्मक धोखाधड़ी की मिसाल मिल गई। सांसदों के फर्जी साइन वो भी ऐसे नहीं कि बस दिखावे के लिए। किसी ने तो हद ही कर दी जेल में बंद सांसद का भी दस्तखत करवा लिया। अब या तो जोसेफ जी के पास टाइम मशीन है या फिर जेल में कोई हस्ताक्षर सेवा खुल गई है।
विदेश में सांसद जी, हो गए हस्ताक्षर
कई सांसदों ने मीडिया से साफ कहा कि हमें तो पता ही नहीं, हमारा नाम क्यों है। और उनकी बेचैनी देख कर लग रहा था कि वो अपने असली साइन को भी पहचानने को तैयार नहीं। एक सांसद ने तो कहा कि मैं तो उस दिन विदेश में था मगर नामांकन में उनके हस्ताक्षर ऐसे चमक रहे थे। जैसे क्लास में वो बच्चा जो आया ही नहीं फिर भी प्रोजेक्ट में उसका नाम सबसे ऊपर।
उम्मीदवारों की कलरफुल कल्पनाएँ
अब सवाल ये है कि इतनी बड़ी गड़बड़ी हुई कैसे? क्या नामांकन पत्रों की जांच भी अब AI से कराई जाए? या फिर ये मान लिया जाए कि हमारे सांसदों के दस्तखत अब सार्वजनिक संपत्ति हो चुके हैं। जो भी चाहे, जहां चाहे, इस्तेमाल कर ले? चुनाव आयोग ने इस नामांकन को तो खारिज कर दिया लेकिन जो हँसी इसके पीछे छुपी है, वो पूरे लोकतंत्र के चेहरे पर गूंज रही है। लोकतंत्र में भागीदारी अच्छी बात है लेकिन जब भाग लेने की होड़ में जिम्मेदारी गिरवी रख दी जाए तो इसे क्या कहा जाए? अब 9 सितंबर को चुनाव है और बाकी 66 उम्मीदवारों को कहना पड़ेगा कि कृपया अगली बार असली दस्तखत लेकर आइए, ये कलरफुल कल्पनाएँ नहीं चलेंगी।
लोकतंत्र का मजाक तब बनता है जब लोक नाम के 'मजाकिया' लोग उसे सीरियसली लेना शुरू कर देते हैं। उपराष्ट्रपति पद कोई सोशल मीडिया पोल नहीं है जहां कोई भी नामांकन कर दे। लेकिन भारत में नामांकन से ज्यादा नाम कमाने का जरिया बन चुका हैऔर ये हर बार साबित होता है। शुक्र है कि चुनाव आयोग अब भी मजाक नहीं करता वरना इस बार शायद किसी ने अपने कुत्ते के नाम से भी नामांकन करवा दिया होता।
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