Premanand Ji Maharaj: सफलता चाहिए तो निंदा करने वालों से रहे कोसों दूर- प्रेमानंद महाराज

Premanand Ji Maharaj Success Secrets: प्रेमानंद महाराज स्पष्ट करते हैं कि, निंदा करना, निंदा सुनना और निंदा का अनुमोदन करना तीनों ही एक समान अपराध है।

Shweta Srivastava
Published on: 23 Aug 2025 12:47 PM IST
Premanand Ji Maharaj Satsang and Motivation Gyan
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Premanand Ji Maharaj Satsang 

Premanand Ji Maharaj Success Secrets: जीवन में सफलता शांति और आध्यात्मिक ऊंचाई पाने वाले के लिए केवल मेहनत और प्रतिभा ही पर्याप्त नहीं होती, बल्कि सही संगति और सच्चे मार्ग का चयन भी उतना ही आवश्यक होता है। हमारे भागवत महापुराण और संतों की शिक्षाओं में बार-बार यही बताया गया है की, निंदा करने वालों, असत्य के मार्ग पर चलने वालों और माया जाल में उलझे लोगों से दूरी बनाना ही सफलता और आध्यात्मिक आनंद का सबसे बड़ा रहस्य है। प्रेमानंद महाराज अपने प्रवचनों में इसी गूढ़ सत्य को सरल भाषा में समझाते हुए कहते हैं कि, जो लोग दूसरों की निंदा करते हैं, दूसरों की अवहेलना करते हैं तो उनका साथ करना अपने पतन को न्योता देने जैसा है। अगर जीवन में वास्तविक उत्थान चाहिए तो निंदा, क्रोध और अहंकार से दूर रहकर भक्ति मार्ग पर चलना ही एकमात्र उपाय है।

निंदा करने वालों का संग और उसका प्रभाव


प्रेमानंद महाराज स्पष्ट करते हैं कि, निंदा करना, निंदा सुनना और निंदा का अनुमोदन करना तीनों ही एक समान अपराध है। जब कोई व्यक्ति दूसरों की आलोचना करता है और उसके आसपास बैठे लोग चुपचाप उसे सुनते हैं या उसकी हां में हां मिलाते हैं। तो वह सभी इस दोष के बराबर के भागी होते हैं। ऐसे ही लोग असत्य पुरुष कहलाते हैं। यह ना तो ईश्वर भक्ति में रुचि रखते हैं और ना ही भागवत गुणगान में। उनके जीवन का केंद्र केवल प्रपंच और दूसरों का अपमान करना होता है। इस तरह की संगति धीरे-धीरे इंसान के भीतर नकारात्मकता भर देती है। ये नकारात्मकता आत्मा को अंधकार की ओर ले जाती है। मानव जीवन के वास्तविक उद्देश्य को लेकर प्रेमानंद जी बताते हैं, कि यह मानव जन्म कोई सामान्य सहयोग नहीं है, बल्कि भगवान की कृपा से मिला हुआ एक दुर्लभ अवसर है। इस देह का उद्देश्य केवल भोग-विलास और सांसारिक सुख सुविधाओं तक सीमित नहीं होना चाहिए। मनुष्य को चाहिए कि वह ईश्वर का नाम जप करें, सत्संग का लाभ उठाएं और भक्ति में लीन होकर दिव्य आनंद की अनुभूति करें। यह जीवन केवल निंदा-विवाद और आलोचना में ही नष्ट हो गया तो यह वैसा ही होगा, जैसे किसी को सोने की खान मिल जाए और उसमें से केवल मिट्टी निकाल कर घर ले आए।

समय की शक्ति और धैर्य का महत्व

अपने प्रवचनों में प्रेमानंद महाराज समय की महिमा पर भी विशेष बल देते हैं। वह बताते हैं कि, महाभारत काल में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों से कहा था कि तुम समर्थ हो बलवान हो परंतु अभी समय अनुकूल नहीं है यह 12 वर्ष का वनवास एक वर्ष का अज्ञातवास स्वीकार करो। समय के फेर से ही इन सारे अन्यायियों और दुष्टों का विनाश होगा। तुम धैर्य रखो। इसी प्रकार विदुर जी ने भी पांडवों को लाक्ष्यागृह की घटना में यह सलाह दी कि इस गुप्त गुफा से चुपचाप जंगल की ओर निकल जाओ और जब तक समय अनुकूल न हो तब तक किसी को जताने की जरूरत नहीं कि तुम जिंदा हो। अभी प्रतिरोध करने का समय नहीं बल्कि धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने का समय है। विदुर जी की यह सीख सिखाती है कि, जीवन में परिस्थिति चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हो, सही अवसर की प्रतिक्षा करना ही बुद्धिमानी है।

असत्पुरुषों का त्याग ही सफलता की कुंजी


प्रेमानंद जी अपने दिव्य प्रवचन में यह संदेश देते हैं कि, जो लोग केवल अपनी वासनाओं, भोग और ख्याति में डूबे रहते हैं। उन्हें ईश्वर से कोई सरोकार नहीं होता। वे अपना पूरा जीवन दूसरों की निंदा और अपमान में गंवा देते हैं। ऐसे लोगों का संग करना आत्मा को अंधकार में ढकेलता है। महाराज कहते हैं कि, यदि कभी निंदा करने की स्थिति भी आ जाए तो अपने कान बंद कर लें। और वहां से हट जाएं। यह कदम न केवल हमारे मन को नकारात्मकता से बचाता है बल्कि हमें अपने मार्ग पर दृढ़ता प्रदान करता है।

काम क्रोध और अहंकार से सावधान

मनुष्य के तीन सबसे बड़े शत्रु - काम, क्रोध और अहंकार उसकी सफलता में बड़ी बाधा बनते हैं। काम इच्छाओं का अनियंत्रित रूप हैं। क्रोध तब जन्म लेता है जब इच्छाएं पूरी नहीं होती हैं। अहंकार वह रोग है जिसमें इंसान स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानने लगता है। महाराज कहते हैं कि जिसने इन तीनों पर विजय हासिल कर ली वह वास्तव में सफल जीवन जीता है। लेकिन यह विजय साधारण प्रयासों से नहीं मिलती। इसके लिए सत्संग की गहराई और नाम- जप की शक्ति जरूरी है। यही साधन हमारी बुद्धि को पवित्र बनते हैं और हमें इन आंतरिक शत्रुओं पर नियंत्रण पाने की शक्ति देते हैं।

द्वंदो को सहकर मिलती है आध्यात्मिक ऊंचाई की सीढ़ी

जीवन सुख-दुख, मान-अपमान, जय-पराजय और निंदा-स्तुति जैसे द्वंद्वों से भरा हुआ है। यह द्वंद्व ठीक उसी तरह है जैसे चक्की के दो पाट। जिनके बीच में अनाज पिसता है। सांसारिक व्यक्ति इसी पाट के बीच पिसते रहते हैं। जबकि जो ईश्वर की शरण में चला जाता है उसे पर यह द्वंद्व कोई असर नहीं डाल पाते। प्रेमानंद जी कहते हैं की, 'चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोए, दो पाटन के बीच में साबुत बचा ना कोई'। यानी भगवान की शरण में गया हुआ भक्त इस चक्की के बीच में भी सुरक्षित रहता है। क्योंकि ईश्वर की भक्ति चक्की के केंद्र में स्थापित उस कील की तरह है। जिस पर चक्की के दोनों पाट नियंत्रित रहते हैं। ऐसे भक्तों पर ईश्वर की कृपा सदैव बनी रहती है।

सत्संग और नाम- जप की अनिवार्यता











सत्संग और नाम-जप जीवन की वह शक्ति है जो मनुष्य को काम क्रोध और अहंकार से ऊपर उठने की सामर्थ प्रदान करती है। सत्संग से बुद्धि पवित्र होती है, विचार उच्च होते हैं और नाम-जप से आत्मा शुद्ध होती है। यही दोनों साधना मिलकर इंसान को उस अवस्था तक पहुंचा देती हैं जहां द्वंद उसे छू भी नहीं पाते।जीवन का हर कदम सफलता की ओर बढ़ने लगता है।

सफलता का सच्चा रहस्य

प्रेमानंद महाराज समझाते हैं की सच्ची सफलता केवल धन-पद और ख्याति से नहीं मापी जाती। वास्तविक सफलता तब है जब जीवन शांति, संतोष और आनंद से भर जाए। इसके लिए हमें परनिंदा से दूर रहना होगा। असत्पुरुषों का संग छोड़ना होगा। समय के महत्व को पहचानना होगा। काम क्रोध अहंकार पर नियंत्रित नियंत्रण पाना होगा और सत्संग व नाम-जप को अपने जीवन का हिस्सा बनाना होगा। यही वह कर्म हैं जो इंसान को सांसारिक उपलब्धियों के साथ-साथ आध्यात्मिक ऊंचाई की ओर भी ले जाते हैं।

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