ये भी बनेंगे हकदार

सरकारी कर्मचारियों और समाज में बढ़ती ‘हकदारी’ की प्रवृत्ति पर योगेश मिश्रा का तीखा विश्लेषण। रेल यात्राओं से लेकर राजनीति तक, हर स्तर पर फैलते अधिकारबोध और मुफ्तखोरी की मानसिकता की सच्ची तस्वीर पढ़िए इस लेख में।

Yogesh Mishra
Published on: 14 Oct 2025 7:24 PM IST (Updated on: 14 Oct 2025 7:42 PM IST)
Entitlement Culture India
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Entitlement Culture India

Entitlement Culture India: सोशल मीडिया गज़ब की चीज है। लाख बुराइयों के बावजूद सोशल मीडिया है एक बेहतरीन शिक्षक, आंखें खोल देने वाला शिक्षक। हमारे इर्दगिर्द मौजूद और लगातार हो रही ऐसी ऐसी चीजें जिन्हें हम देख कर भी पहचान नहीं पाते वो सब सोशल मीडिया पेश कर देता है। ऐसी ऐसी जानकारी जो हैरान करती हैं, विस्मय पैदा करती हैं और परेशान भी करती हैं।

भारतीय रेलवे को ही लीजिए। हम समझते हैं कि रेलवे सिर्फ एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का ही काम करती है। लेकिन सिर्फ इतने तक रेलवे को सीमित कर देना नादानी होगी। रेलवे तो हमारे समाज का आईना है। एक मामूली सी भी रेल यात्रा समाज शास्त्र या सामाजिक विज्ञान का चैप्टर है, बशर्ते हम उसे पढ़ सकें,समझ सकें। कितना कुछ एक रेल यात्रा और उस यात्रा के किरदार सिखा देते हैं, वो अमूल्य है। सो, अगर रेलवे सोसाइटी है तो उसका सोशल मीडिया का अभिन्न हिस्सा बनना लाजिमी ही है, कम से कम हमारे मुल्क में जहां रेलवे सिर्फ रेलवे नहीं बल्कि एक लाइफ लाइन है। इस लाइफ लाइन के यात्री और मुलाजिम, दोनों ही अपने कैमरों और सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग करते हैं ताकि कुछ भी छूटने न पाए और ताकि सनद बनी रहे।

खैर, सोशल मीडिया रेल यात्राओं की इन्हीं सनदों के मंजर दिखाता रहता है। इन्हीं मंजरों में एक कुछ यूं है – एक युवती किसी ट्रेन के एसी कोच में ठाठ से बैठी है और वो भी बिना टिकट। इसी बात पर टीटी से बहसाबहसी हो रही है। टीटी उससे कोच से हटने और टिकट लेने को कह रहा है। लेकिन टिकट लेना, फाइन भरना या कोच से हटना तो दूर, वह युवती बिना किसी अपराधबोध के बड़ी दिलेरी से ऐलान करती है कि वह सरकारी टीचर है और ऐसे ही जाएगी। इसी घटना का पार्ट-2 क्लिप भी आया है जिसमें वो टीचर अपने स्टेशन पर उतर चुकी है। वहां उसका पिता भी मौजूद है और दोनों जनें टीटी की जम कर लानत-मलामत कर रहे हैं और वो भी कई सिपाहियों की मौजूदगी में। इन्तेहा तो यह है कि टीटी का सर कलम कर देने की धमकी भी दी जा रही है।

एक और वाकया सामने आया है। किसी ट्रेन के फर्स्ट एसी कोच का। अब आप जानते ही हैं कि फर्स्ट एसी का किराया तो अमूमन प्लेन के किराये के बराबर ही होता है। बहरहाल, एक महिला और उसकी पुत्री की टीटी से बहस हो रही है। क्यों? क्योंकि माँ-बेटी दोनों बिना टिकट हैं। गलती मानना दो दूर, उस महिला का तुर्रा ये है कि उसका बेटा लोको पायलट है। उसी ट्रेन को चला भी रहा है। और तो और, टीटी का नाम पूछ कर दोनों महिलाएं उस पर जातिगत आक्षेप लगाती नजर आती हैं।

एक वाकया और गिना दें। एक और ट्रेन के फर्स्ट एसी कोच में एक शख्स आराम से लेटा है। कुछ सिपाहियों के साथ आया टीटी उससे टिकट मांगता है तो वह शख्स अपने को रेलवे अफसर बताता है। लेकिन उसके पास न आईडी है न कोई सबूत। काफी हुज्जत के बाद वो कहता है कि वह रेलवे के अफसर का जीजा है। यही उसकी क्वालिफिकेशन है बिना टिकट चलने की।

ये चंद वाकयात हैं लेकिन एक गहरी कहानी बयाँ करते हैं, सरकारी कर्मचारियों के ‘एंटाइटलमेंट’ यानी हकदारी के बोध की। हम सरकारी कर्मचारी हैं तो हमें सब कुछ मुफ्त पाने का हक़ है। इसी हक़ से कर्मचारियों के रिश्तेदार तक धौंसियाते हैं। ये हकदारी सरकारी संपत्ति के मामले में सर चढ़ कर बोलती है। ट्रेन – बस में बिना टिकट, बिना रिजर्वेशन पूरी रंगबाजी से चलते कितने ही विडियो सामने आते रहते हैं।

अगर कोई पुलिसवाला हो तो कहना ही क्या, उसकी हकदारी तो ईरिक्शा से लेकर हर कहीं चलती है। सरकारी मुलाजिम जितनी ऊंची कुर्सी उसकी उतनी ऊंची हकदारी।

बिहार चुनाव में इस बार एक नायाब चुनावी वादा चक्कर लगा रहा है – बिहार के हर एक परिवार के कम से कम एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का वादा। बिहार सरकार के ही एक सर्वे के मुताबिक इस राज्य में कोई तीन करोड़ परिवार हैं। अब मान लीजिये वादा करने वाली पार्टी जीत गयी तो तीन करोड़ सीधे हकदार और उनके करोड़ों रिश्तेदार इनडायरेक्ट हकदार बन जायेंगे। क्या होगा तब? हर परिवार हर चीज मुफ्त में पाने का हकदार। जरा सोचिये, क्या ही मंजर होगा और क्या हाल होगा रेलवे जैसे सरकारी महकमों का?

क्योंकि रोज 13198 सवारी गाड़ियाँ चलती हैं। तकरीबन साढ़े बारह लाख कर्मचारी हैं। डेढ़ लाख पद ख़ाली हैं। सोचिये बिहार में किये गये वायदे से रेलवे के पद भर जायें तो इन आंकडो का क्या होगा? पर चलिये अभी हम सोशल मीडिया पर कुछ ही झलक देख कर ही चिंतित हैं। ये विडियो क्लिप्स तो विशाल समंदर की कुछ बूँदें मात्र हैं। कितना कुछ और किस हद तक क्या क्या हो रहा होगा, क्या कुछ हो चुका होगा, क्या कुछ होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।

मिसाल के लिए बता दें कि सन 2022-23 में रेलवे को यात्री किराये के ही मद में 59 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था। ये नुकसान साल दर साल चलता ही जाता है। भुगतते हैं वो जो हकदारी से वंचित हैं। जिनका कोई सगा सम्बन्धी न अफसर है न टीटी या न ड्राईवर।

यह हकदारी ही अनगिनत युवाओं को सरकारी नौकरियों की ओर खींचती है। जब अपने को दरोगा का भतीजा बताने मात्र से कितनी ही सहूलियतें मिल जाती हैं तो खुद दरोगा बनने से जादू की छड़ी हाथ आ जाएगी। और कहीं आईपीस, आईएएस बन गए तो सपने से भी परे जाने की बात होगी। यही आकर्षण है। यही चुम्बक खींचता है। जहाँ सिर्फ वेतन और सुरक्षित नौकरी ही काफी नहीं होती बल्कि उससे भी आगे जाने की आकांक्षा होती है।

हम तो सोशल मीडिया पर कुछ ही झलक देखते हैं। विडियो क्लिप्स तो समाज रूपी विशाल समंदर की कुछ बूँदें मात्र हैं। कितना कुछ और किस हद तक क्या क्या हो रहा होगा, क्या कुछ हो चुका होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। सवाल परेशान कर सकता है कि ऐसा क्यों है? वजह बेहद सामान्य सी है – हमने जो अपने इर्दगिर्द देखा है, बड़े लोगों, ओहदे वालों के लाइफ स्टाईलें, उनकी दौलतें देखीं हैं तो हम भी क्यों नहीं उसी स्तर पर पहुंचें? कौन रोकेगा हमें? यही एंटाइटलमेंट है।

ट्रेन में बिना टिकट ठाट से चलने वाले टीचरों, सिपाहियों, रिश्तेदारों से लेकर वसूली करने वाले किन्नरों, कैटरिंग वाले वगैरह सब हमारे बीच के हैं, हम जैसे ही हैं। जो हकदारी नहीं दिखा पा रहे वो उनकी सदाशयता से ज्यादा उनकी मज़बूरी है। जब वो भी हकदारी ग्रुप का हिस्सा बन जायेंगे तब वो भी उसी जमात में खड़े नज़र आएंगे। ये चक्र है। चलता ही जा रहा है, फैलता भी जा रहा है। हम आप करें भी तो क्या? सोशल मीडिया पर आयी क्लिप्स को देख कर अपनी भड़ास ही निकाल सकते हैं और यही कह कर तसल्ली पा सकता सकते हैं कि अपनी करनी अपने साथ, बाकि सब भगवान के हाथ।

( लेखक पत्रकार है।)

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