जन-गण-मन जय हो

National Song vs National Anthem: भारत के राष्ट्रगान जन-गण-मन और राष्ट्रगीत वंदे मातरम् से जुड़े इतिहास, विवाद और संवैधानिक पृष्ठभूमि पर गहन विश्लेषण। जानिए क्यों उठे सवाल और क्या है इन राष्ट्रीय प्रतीकों का महत्व।

Yogesh Mishra
Published on: 17 Sept 2025 4:04 PM IST
National Song vs National Anthem
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National Song vs National Anthem

National Song vs National Anthem: राष्ट्र के लिए राष्ट्रगान, राष्ट्रीय चिन्ह, राष्ट्रीय पशु, राष्ट्रीय जलीय जीव, राष्ट्रीय पंचांग, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय पुष्प, राष्ट्रीय वृक्ष, राष्ट्रीय फल और राष्ट्रीय खेल का होना भी ज़रूरी है। लेकिन आज़ादी के समय हमारे नीति–नियंताओं ने इन सबके निर्धारण में ऐसी उदासीनता दिखाई कि राष्ट्र के लिए अनिवार्य ये तत्व या तो विकास की धारा के साथ–साथ हाशिए पर चले गए या विवाद का विषय बन गए। संविधान के तमाम अंग–उपांग का विवाद का विषय बनना इसी उदासीनता की देन है। सबसे पहले उन परिस्थितियों पर नज़र डालना आवश्यक है जिनमें संविधान बना—उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था, एडोल्फ़ हिटलर ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को झकझोर चुका था, सुभाषचंद्र बोस ‘आज़ाद हिन्द सरकार’ बना चुके थे जिसे 11 देशों ने मान्यता दी; उनका अपना बैंक था; उनकी आज़ाद हिन्द फ़ौज में 40,000 लोग भर्ती हो चुके थे। फ़रवरी 1946 में नौसेना ने अंग्रेज़–परस्ती से इंकार किया और ठीक एक महीने बाद ब्रिटिश इंडिया पुलिस ने भी यही किया। संविधान का आधार 1858 का वह अधिनियम बनाया गया जिसे भारत पर राज करने के लिए अंग्रेज़ों ने तैयार किया था; गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट, 1935 और भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 ब्रिटेन की संसद से पारित हुए। जवाहरलाल नेहरू ने के.एम. मुन्शी, के. शांताराम, हुमायूं कबीर, डी.आर. गाडगिल, आसफ़ अली और के.डी. शाह समेत सात लोगों की एक समिति बनायी; डॉ. भीमराव अम्बेडकर अलग से ड्राफ़्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे। दो वर्ष 11 माह 18 दिन और 114 बैठकों के बाद जो संविधान बना, उसमें ब्रिटिश संसदीय परम्परा के साथ–साथ अमेरिकी, कनाडाई, आयरिश, ऑस्ट्रेलियाई और जर्मन व्यवस्थाओं से कई प्रावधान उधार लिए गए—यहाँ तक कि प्रस्तावना के कुछ अंश भी ‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा’ जोड़कर बने। आज तक 109 संशोधनों के बावजूद संविधान अनेक बार भारतीय ज़रूरतों की पूर्ति में अपर्याप्त समझा गया; विविधता में एकता वाले भारत के भिन्न–भिन्न भू–भागों की जन–भावनाओं का अपेक्षित प्रतिनिधित्व भी यह उतनी समग्रता से नहीं कर पाया। स्वतंत्रता के स्थान पर ‘सत्ता–हस्तांतरण’ की मानसिकता का ही परिणाम था कि IPC और CrPC जैसी ब्रिटिश–कालीन धाराएँ जस की तस स्वीकार कर ली गईं।

इन्हीं कारणों से आज़ादी के 53 वर्ष बाद संविधान–समीक्षा आयोग बना। 22 फ़रवरी 2000 को पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम.एन. वेंकटचेलैया की अध्यक्षता में गठित आयोग ने 31 मार्च 2002 को अपनी रिपोर्ट तब के क़ानून मंत्री अरुण जेटली को सौंपी। आयोग ने मौलिक अधिकारों के विस्तार, नए अधिकार तय करने, चुनाव–सुधार और राजनीतिक दलों के आचरण तक पर 230 सिफ़ारिशें दीं—पर वे ठंडे बस्ते में डाल दी गईं। यानी आज़ादी के समय के रहनुमा हों या आधी सदी बाद के—राष्ट्रीय प्रतीकों और बुनियादी सवालों पर मंशा का फर्क उल्लेखनीय नहीं दिखा। इसी उदासीनता के चलते राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत जैसे प्रतीकों पर वाद–विवाद बार–बार उठते रहे—कहा गया कि जन–गण–मन जॉर्ज पंचम की प्रशस्ति है; 1911 में उनके आगमन पर लिखा गया। (तत्कालीन पृष्ठभूमि—रवीन्द्रनाथ के बड़े भाई अवनीन्द्रनाथ टैगोर ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक डिविजन में निदेशक थे।) विवाद इतना बढ़ा कि रवीन्द्र–जीवनी (द्वितीय भाग, पृ. 339) पर यह प्रकाशित करना पड़ा—टैगोर ने 10 नवम्बर 1937 को पुलिन बिहारी सेन को लिखे पत्र में कहा: “मैंने ‘भारत–भाग्य–विधाता’ के तौर पर भगवान को अपने गान में लिखा है—वह सर्वशक्तिमान जो सबको अँधेरे में राह दिखाता है, जो हर युग में उपस्थित है। किंग जॉर्ज पंचम या कोई भी राजा सर्वशक्तिमान नहीं हो सकता; यह गाना उसी सर्वशक्तिमान के लिए है।” फिर भी वाद थमा नहीं; यह तक कहा गया कि 1913 के नोबेल–सम्मान के कारण गीत को तरजीह मिली—जबकि टैगोर ने जलियाँवाला बाग़ पर आरम्भिक मौन की आलोचना पर नोबेल तक लौटाने की घोषणा कर दी थी।

अब उस समय के गीतों—राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत—के बीच जो कुछ हुआ, उसे संपूर्ण रूप से देखना ज़रूरी है—

जन-गण-मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्य-विधाता।

पंजाब-सिन्धु-गुजरात-मराठा, द्राविड़-उत्कल-बंग।

विन्ध्य-हिमाचल-यमुना-गंगा, उच्छल जलधि-तरंग।

तव शुभ नामे जागे, तव शुभ आशिष मांगे,

गाहे तव जयगाथा।

जन-गण-मंगलदायक जय हे, भारत भाग्य-विधाता।

जय हे, जय हे, जय हे—जय जय जय जय हे।

अहरह तव आह्वान प्रचारित, शुनी तव उदार वाणी,

हिंदू-बौद्ध-सिख-जैन, पारसी-मुसलमान-ईसाई।

पूर्व-पश्चिम आशे, तव सिंहासन-पाशे, प्रेम-हार हय गाथा—

जन-गण-ऐक्य-विधायक जय हे भारत भाग्य-विधाता।

जय हे, जय हे, जय हे—जय जय जय जय हे।

पथन-अभ्युदय बंधुर पन्था, युग-युग धारिता यात्री हे,

चिर-सरथी, तव रथ-चक्र मुखरित पथ दिन-रात्रि।

दारुण विप्लव-माझे तव शंख-ध्वनि बाजे, संकट-दुःख-त्राता—

जन-गण-पथ-परिचायक जय हे भारत भाग्य-विधाता।

जय हे, जय हे, जय हे—जय जय जय जय हे।

घोर तिमिर-निशीथे, पीड़ित-मूर्छित देशे,

जागृत छिल तव अविचल-मंगल, नत-नयने अनिमेषे।

दुःस्वप्ने आतंके रक्षा करिले, अंके स्नेहमयी तुमि माता—

जन-गण-दुःख-त्राता जय हे भारत भाग्य-विधाता।

जय हे, जय हे, जय हे—जय जय जय जय हे।

रात्रि-प्रभातिल उदित रवि-छवि,

पूर्वोदय-गिरि-भाले—गाए विहंगम पुण्य-समीरण, नव-जीवन-रस डोले।

तव करुणा-अरुण-रागे, निवेदित भारत जागे,

तव चरणे नत माता; जय-जय-जय हे, जय राजेश्वर—

भारत भाग्य-विधाता।

जय हे, जय हे, जय हे—जय जय जय जय हे।

(भावार्थ)—जन–गण–मन के अधिनायक—भारत–भाग्य–विधाता—आप की जय हो। पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्राविड़, उत्कल, बंग; विन्ध्य, हिमाचल, यमुना, गंगा और उत्ताल लहरों वाला सागर—सब आपके शुभ–नाम से जागते हैं, आपके शुभ–आशीष की याचना करते हैं और आपकी जय–गाथा गाते हैं। आप जन–गण के मंगलदायक हैं—भारत–भाग्य–विधाता—आपकी जय हो…

यहीं “अधिनायक” शब्द पर आपत्ति उठी—जिसका एक अर्थ ‘Dictator’ तक जा पहुँचा—और वह पंचशील–अहिंसा की परम्परा से मेल न खाने के कारण आलोचना का विषय बना। यह भी सत्य है कि स्वतंत्रता–संग्राम में जन–जन की ज़ुबान पर जो गीत था, वह श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ का झंडा–गीत और वंदे मातरम् था—कांग्रेस अधिवेशनों में यह गूँजता रहा—

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,

झंडा ऊँचा रहे हमारा।

सदा शक्ति बरसाने वाला, प्रेम–सुधा वरसाने वाला,

वीरों को हर्षाने वाला—मातृभूमि का तन–मन सारा—

झंडा ऊँचा रहे हमारा।

स्वतंत्रता के भीषण रण में, लखकर जोश के क्षण–क्षण में,

काँपे शत्रु देखकर मन में, मिट जाए भय–संकट सारा—

झंडा ऊँचा रहे हमारा…

इसी क्रम में जयशंकर प्रसाद का उद्बोधन गीत भी स्मरणीय है—

हिमाद्रि तुंग शृंग से, स्वयं प्रभा समुज्ज्वला—

प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वतंत्रता पुकारती।

अमृत–पुत्र हो—दृढ़–प्रतिज्ञ सोच लो;

प्रशस्त पुण्य–पंथ है—बढ़े चलो, बढ़े चलो।

असंख्य कीर्ति–रश्मियाँ, विकीर्ण दिव्य–भार सी—

सपूत मातृभूमि के, रुको न शूर साहसी।

अरुण आश्रित सैन्य–सिन्धु में, सुवाग्नि से जलो—

प्रवीर हो, जयी बनो—बढ़े चलो, बढ़े चलो।

और वंदे मातरम्—जिसने बंग–भंग के प्रतिरोध में अखिल भारतीयता का रूप लिया—

वंदे मातरम्।

सुजलां सुफलां मलयज–शीतलाम्,

शस्य–श्यामलां मातरम्—वंदे मातरम्।

शुभ्र–ज्योत्स्नाम् पुलकित–यामिनीम्,

फुल्ल–कुसुमित द्रुम–दल–शोभिनीम्,

सुहासिनीम् सुमधुर–भाषिणीम्—

सुखदां वरदां मातरम्—वंदे मातरम्।

सप्त–कोटि कंठ–कल–कल निनाद–कराले,

द्वि–सप्त–कोटि भुजैधृत खर–करवाले—

बहुबल–धारिणीम्, नमामि तारिणीम्,

रिपु–दल–वारिणीम् मातरम्—वंदे मातरम्।

त्वं हि विधा, त्वं हि धर्म, त्वं हि हृदि, त्वं हि मर्म—

त्वं हि प्राणः शरीरे;

बाहुते त्वं हि मा–शक्ति, हृदयें त्वं हि मा–भक्ति—

तोमार प्रतिमा गढ़ि मंदिर–मंदिर—वंदे मातरम्।

त्वं हि दुर्गा दश–प्रहरण–धारिणी,

कमला कमल–दल–विहारिणी;

वाणी विद्या–याधिनी—नमामि त्वाम्;

नमामि कमलाम्, अमलाम्, अतुलाम्—

सुजलां सुफलां मातरम्—वंदे मातरम्।

श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्,

धरणी–भरणी मातरम्—वंदे मातरम्।

1906 में मुस्लिम लीग बनी तो विरोध–स्वर उठे। 1923 के काकीनाडा अधिवेशन में मौलाना मोहम्मद अली ने इसे इस्लाम–विरोधी बताकर बंद कराने की बात कही; पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने मंच से पूरा गीत गाकर उसका तर्कपूर्ण प्रतिवाद किया। 1938 में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस से इसे बंद कराने का औपचारिक आग्रह किया; मद्रास विधानसभा में गाए जाने पर मुस्लिम सदस्यों ने बहिष्कार किया। तब मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, नेहरू, सुभाष बोस और आचार्य नरेन्द्र देव की उपसमिति बनी; रवीन्द्रनाथ से परामर्श के बाद उसने सिफ़ारिश की—वंदे मातरम् के केवल दो पद्य—“सुजलां सुफलां…” और “शुभ्र–ज्योत्स्नाम्…”—ही सार्वजनिक सभाओं में गाए जाएँ। जिन्ना ने इन्हें भी नकारते हुए कहा—गीत ‘आनंदमठ’ से है जो मुसलमान–विरोधी है। रवीन्द्रनाथ ने लंबा पत्र लिखकर स्पष्ट किया—यह गीत मातृभूमि–सौन्दर्य और राष्ट्र–भावना का कोमल, प्रेरक स्वर है; बंग–भंग के प्रतिरोध में यह हमारा जय–गान बना और युवकों के त्याग का प्रतीक है।

1948 में नेहरू ने कहा—“वंदे मातरम् स्पष्टतः और निर्विवाद रूप से भारत का प्रमुख राष्ट्रीय गीत है; उसकी महान ऐतिहासिक परंपरा है; हमारे स्वतंत्रता–संग्राम में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।” फिर भी संविधान–सभा में 319 में से 318 सदस्य जहाँ वंदे मातरम् को राष्ट्रगान बनाये जाने के पक्ष में थे, वहीं अकेले नेहरू ने यह कहते हुए विरोध किया कि इससे मुसलमानों को चोट पहुँचेगी; और अंततः जन–गण–मन राष्ट्रगान, वंदे मातरम् राष्ट्रीय गीत बना। प्रश्न फिर भी शेष है—जब अंग्रेज़ वंदे मातरम् से इतनी अरुचि रखते थे कि गाने वालों को जेल भेजते थे, तो उसे राष्ट्रगान का दर्जा क्यों नहीं मिला? राष्ट्रगीत–राष्ट्रगान अलग–अलग क्यों? गांधी जी चाहते थे—यह विवाद नई पीढ़ी की सहमति से सुलझे; पर आज़ादी के उन्माद में हम इतने संयत न रह सके कि इन मूलभूत प्रश्नों का स्थायी समाधान निकालते।

इसी वृत्ति के कारण हमने औपनिवेशिक भूमि–अधिग्रहण क़ानून जस का तस स्वीकार किया (यद्यपि संशोधन की कवायद आज भी जारी है), उधार का संविधान बनाया, IPC–CrPC जैसे अनेक औपनिवेशिक क़ानून यथावत रखे—जबकि वे भारतीयों के शोषण–उत्पीड़न के औज़ार थे। विधि–आयोग ने 1957, 1984, 1995, 1998 की रिपोर्टों में 1500 निष्प्रयोज्य क़ानून हटाने की सिफ़ारिश की—पर हुआ कुछ नहीं। औपनिवेशिक ढांचा जस का तस है—इसीलिए पुराने विवाद जीवित हैं और नये आकार में हमारी अस्मिता और समाज को बार–बार चुनौती देते हैं।

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