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काम, चुप्पी और डिजिटल बाजार, भारत की यौन चेतना पर एक जरूरी बहस
आज का भारत एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहां यौन-चेतना और उसकी अभिव्यक्ति केवल निजी या पारिवारिक मुद्दा नहीं रहा
Work Silence and the Digital Market (Image Credit-Social Media)
भारतीय धर्म, अध्यात्म, समाज और व्यक्तिगत जीवन में ‘काम’ को कभी भी सर्वोपरि स्थान नहीं मिला। हमेशा इसे धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ चौथे स्तंभ के रूप में देखा गया — एक ऐसा तत्व जो आवश्यक तो है, लेकिन नियंत्रित भी रहे। भारतीय संस्कृति की मूल आत्मा में काम केवल शरीर की तृष्णा नहीं, बल्कि प्रेम, करुणा, सृजन और सौंदर्य का शुद्ध रूप था। शास्त्रों में वर्णित ‘काम’ कभी भोग-विलास नहीं था, बल्कि जीवन की यात्रा में एक संतुलित पड़ाव की तरह था, जिसे धर्म की मर्यादा और मोक्ष की आकांक्षा से संतुलित रखा जाता था। किंतु इक्कीसवीं सदी में यह समीकरण लगातार असंतुलित होता जा रहा है। सबसे पहला विघटन तब हुआ जब काम का धर्म से रिश्ता तोड़ दिया गया, और फिर धीरे-धीरे काम, जो केवल एक-चौथाई जीवन क्षेत्र था, अर्थ के साथ मिलकर इतना बड़ा हो गया कि उसने धर्म और मोक्ष की सीमाओं को भी लांघ लिया।
आज का भारत एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहां यौन-चेतना और उसकी अभिव्यक्ति केवल निजी या पारिवारिक मुद्दा नहीं रहा, बल्कि यह एक बहुआयामी सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक प्रसंग बन चुका है। एक ओर हम सार्वजनिक मंचों पर सेक्स और यौन शिक्षण पर चुप्पी साधे रहते हैं, वहीं दूसरी ओर डिजिटल दुनिया में भारत दुनिया के सबसे बड़े यौन उपभोक्ताओं में शामिल है। यह विरोधाभास केवल व्यवहारिक नहीं, बल्कि नैतिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी खतरनाक है। स्कूलों और परिवारों में जहां सेक्स को अभी भी ‘संकोचजनक विषय’ माना जाता है, वहीं युवाओं की जिज्ञासाओं का समाधान इंटरनेट, पोर्न, चैट ऐप्स और डेटिंग प्लेटफॉर्म्स के भरोसे छोड़ दिया गया है।
सेक्स का बाज़ारीकरण अब केवल वैश्विक ट्रेंड नहीं, बल्कि भारतीय समाज का भी वास्तविक परिदृश्य बन चुका है। डिजिटल युग में जहां हर जानकारी कुछ क्लिक दूर है, वहां सेक्स ने भी एक ‘कमोडिटी’ यानी बाज़ारू वस्तु का रूप ले लिया है। पोर्न इंडस्ट्री, डेटिंग ऐप्स, सेक्स टॉय बाजार, एडल्ट चैट सर्विसेज, वर्चुअल सेक्स और यहां तक कि AI सेक्स चैटबॉट्स — सबने मिलकर एक ऐसे बाजार को जन्म दिया है जो न केवल हमारी इच्छाओं को भुनाता है, बल्कि हमारी मानसिकता को भी प्रभावित करता है। दिलचस्प यह है कि इस बाजार का सबसे बड़ा ग्राहक वही समाज है, जो सार्वजनिक तौर पर सेक्स की बात को अस्वीकार्य मानता है।
भारत में सेक्स और पोर्न से जुड़ी सामग्री की खपत वैश्विक स्तर पर अत्यधिक है। रिपोर्टों के अनुसार, भारत दुनिया के टॉप पोर्न व्यूइंग देशों में से एक है। औसतन एक भारतीय उपयोगकर्ता पोर्न वीडियो पर 9 से 11 मिनट प्रतिदिन व्यतीत करता है, और लाखों-करोड़ों व्यूज़ प्रतिदिन दर्ज किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त, Tinder, Bumble, OkCupid, और अन्य डेटिंग प्लेटफॉर्म्स अब भारत के टियर-1 शहरों से निकलकर टियर-2 और टियर-3 कस्बों तक पहुँच चुके हैं। इसके समानांतर, कई अवैध एडल्ट साइट्स और ऐप्स ने भी अपना साम्राज्य फैला लिया है, जिनमें वर्चुअल गर्लफ्रेंड, सेक्स चैट, लाइव कैम, और यहां तक कि ‘सेक्शुअल हेल्थ काउंसलिंग’ की आड़ में वेश्यावृत्ति जैसी सेवाएं तक उपलब्ध हैं।
इसका दूसरा और अधिक गंभीर पक्ष है – सेक्स एजुकेशन की घोर अनुपस्थिति। भारत के अधिकांश विद्यालयों में सेक्स शिक्षा या तो बिल्कुल नहीं दी जाती, या उसे जैविक प्रजनन के पाठ्यक्रम में सीमित कर दिया जाता है। शिक्षक संकोच करते हैं, विद्यार्थी हँसते हैं, और माता-पिता इसे ‘शर्म की बात’ मानते हैं। नतीजा यह होता है कि एक पूरी पीढ़ी बिना यौन नैतिकता, सुरक्षा, भावनात्मक समझ और सम्मानजनक संबंधों के बोध के वयस्क हो जाती है। वे जो कुछ भी सीखते हैं, वह या तो अश्लील सामग्रियों से आता है, या गली-नुक्कड़ों की भ्रांतियों से। कोई स्पष्ट संवाद नहीं, कोई मूल्य आधारित मार्गदर्शन नहीं।
इसके चलते जो मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक विकृतियाँ जन्म ले रही हैं — वे दिन-ब-दिन भयावह होती जा रही हैं। किशोरों में पोर्न एडिक्शन, यौन अपराधों की बढ़ती घटनाएँ, कम उम्र में गर्भधारण, ऑनलाइन उत्पीड़न, और अवसाद जैसी समस्याएं इसी चुप्पी और बाजार की साझी देन हैं। एक तरफ हमारे युवा “रेडिट थ्रेड्स” और “पॉर्न साइट्स” से यौन व्यवहार सीख रहे हैं, दूसरी ओर वे किसी से अपने डर, असुरक्षा, या अपराधबोध पर बात भी नहीं कर सकते। यह आंतरिक संकोच उन्हें या तो हिंसक बनाता है, या आत्म-ग्लानि से भर देता है।
सेक्स एजुकेशन की जरूरत केवल किशोरावस्था के लिए नहीं, बल्कि माता-पिता, शिक्षकों और नीति निर्माताओं के लिए भी है। उन्हें समझना होगा कि सेक्स केवल एक क्रिया नहीं, बल्कि एक विचार है — जो प्रेम, जिम्मेदारी, सहमति, स्वास्थ्य और सम्मान से जुड़ा है। जब तक हम इसे केवल “प्रजनन तंत्र” या “गोपनीय विषय” मानते रहेंगे, तब तक हम युवा पीढ़ी को इस विषय पर न तो जागरूक बना पाएंगे, न ही उन्हें सुरक्षित रख पाएंगे।
एक और महत्वपूर्ण पहलू है — सेक्स और तकनीक के गठबंधन ने हमारी यौन समझ को भी वस्तुनिष्ठ (objectified) बना दिया है। अब सेक्स केवल ‘फिजिकल रिलेशन’ नहीं रहा, बल्कि एक ‘अनुभव’ की तरह बेचा जा रहा है। विज्ञापन, वेब सीरीज़, सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर और यहां तक कि FMCG प्रोडक्ट्स में भी सेक्सुअल कंटेंट डाला जा रहा है, क्योंकि यह ‘क्लिक’ और ‘सेल्स’ बढ़ाता है। यह प्रवृत्ति रिश्तों की गहराई को भी प्रभावित करती है। प्यार, प्रतिबद्धता और आपसी समझ जैसी भावनाएं “स्वाइप कल्चर” में खोती जा रही हैं, जहां सब कुछ तात्कालिक, उपभोगात्मक और अस्थायी है।
इस पूरी परिस्थिति को समझना और बदलना अब केवल सामाजिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि नैतिक और राष्ट्रीय ज़रूरत बन चुका है। हमें ‘काम’ को फिर से उसकी मूल गरिमा में स्थापित करना होगा — न उसे दबाना है, न उसे बाजार की वस्तु बनने देना है। यह तभी संभव है जब हम परिवार, विद्यालय और समाज तीनों स्तरों पर संवाद, शिक्षा और समझ का वातावरण तैयार करें।
हमें सेक्स एजुकेशन को केवल शरीर विज्ञान नहीं, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक संबंधों, यौन नैतिकता और जिम्मेदारी के परिप्रेक्ष्य में पढ़ाना होगा। यह शिक्षा केवल युवा पीढ़ी को पोर्न से बचाने या अपराधों से दूर रखने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें एक बेहतर, संतुलित और समझदार इंसान बनाने के लिए आवश्यक है। और सबसे ज़रूरी बात — यह समझना होगा कि काम वर्जना नहीं है, वह भी एक ऊर्जा है, जिसे सृजन, सौंदर्य और प्रेम के लिए दिशा दी जा सकती है।
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